लेखक- पंकज महर
उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में परिसीमन का मुद्दा बारबार उठता रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि उत्तराखंड के सामने आज दो प्रमुख मुद्दे हैं पहला है गैरसैण को स्थायी राजधानी बनाने का मुद्दा और दूसरा है परिसीमन। परिसीमन का मुद्दा हालाँकि देश के अनेक हिस्सों में सरदर्द बना हुआ है और कई राजनीतिक पार्टियां समय समय पर इसका विरोध करती रही हैं लेकिन उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य़ में परिसीमन का मुद्दा और भी गंभीर हो जाता है क्योंकि इससे उत्तराखंड बनने के पीछे के विकास संबंधी जो मूलभूत कारण थे वह पीछे छूट जाते हैं। आइये परिसीमन को उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें।
परिसीमन क्या है?
परिसीमन समय समय पर परिसीमन आयोग द्वारा की जाने वाली एक प्रक्रिया है जिसमें विधान सभा और लोकसभा के क्षेत्रों की सीमायें पुर्ननिर्धारित की जाती हैं। इस पुर्ननिर्धारण का आधार होता है जनसंख्य़ा। यानि जनसंख्या में बढोत्तरी व कमी सीटों के क्षेत्र बदलती है। हालाँक़ि किसी भी राज्य में सीटों की संख्या यथावत रहती हैं लेकिन सीटो की सीमाऐं बदल जाती हैं जिससे किसी भी क्षेत्र के जातिगत समीकरणों पर भी असर पड़ता है। बहुत से ग्रामीण क्षेत्र शहरी क्षेत्र में बदल सकते हैं, अनारक्षित सीट आरक्षित सीट बन सकती है और पहाड़ी क्षेत्र की सीट मैदानी क्षेत्र में जा सकती हैं।
उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में परिसीमन
उत्तराखंड की भौगोलिक स्थितियां बांकी देश से अलग हैं इसीलिये जब परिसीमन आयोग उत्तराखण्ड आया था तो यहां की एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) ने इसकी तीनों बैठकों (देहरादून, नैनीताल और पौड़ी) में विरोध किया और आयोग को उत्तराखण्ड की वास्तविक स्थितियों से अवगत भी कराया था। लोगों का मानना है कि उत्तराखण्ड में परिसीमन भौगोलिक आधार पर या 2002 के परिसीमन के आधार पर हो तो उचित होगा , क्योंकि नये परिसीमन से पहाड़ी क्षेत्रों की ९ विधानसभा क्षेत्र समाप्त हो रहे हैं और यह सीटें मैदानी क्षेत्रों में जुड़ रही हैं। कुछ लोग कहते हैं कि उत्तराखण्ड में नये परिसीमन की आवश्यकता ही नहीं है, उसे यथावत ही रहने देना चाहिये।
नये परिसीमन के लागू होने से पर्वतीय जनपदों के निम्न विधान सभा क्षेत्र कम हो जायेंगे-
1. जिला चमोली से एक सीट (नन्दप्रयाग)
2. पौड़ी गढ़्वाल से दो सीटें (1- धूमाकोट 2- बीरोंखाल)
3. पिथौरागढ़ से एक सीट (कनालीछीना)
4. बागेश्वर से एक सीट (कांडा)
5. अल्मोड़ा से एक सीट (भिकियासैंण)
पर्वतीय जनपदों से कुल ६ (छ्ह) सीटें कम हो गई हैं, जो मैदानी जनपदों में जोड़ी गई हैं, निम्नानुसार-
1. देहरादून जनपद में एक सीट
2. हरिद्वार जनपद में दो सीट
3. नैनीताल जनपद में एक सीट
4. उधम सिंह नगर जनपद में दो सीट
शेष टिहरी, चम्पावत, रुद्रप्रयाग तथा उत्तरकाशी जनपदों में विधान सभा क्षेत्र यथावत रखे गये हैं।
उत्तराखण्ड में विधान सभा क्षेत्रों का परिसीमन 2001 में वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया था। इसी परिसीमन में उत्तराखण्ड के साथ न्याय नहीं हो पा रहा था, रुद्रप्रयाग और चम्पावत जैसे दुर्गम इलाकों में 1 लाख 14 हजार की आबादी पर विधान सभा क्षेत्र बनाये गये, वहीं देहरादून में 49 हजार की आबादी पर एक विधायक बना दिया गया था। हरिद्वार जनपद में जहां हर 16 किलोमीटर पर एक विधायक है वहीं पर्वतीय जनपदों में 135 किलोमीटर पर एक विधायक है। हरिद्वार का विधायक एक ही दिन में अपने क्षेत्र का दो बार भ्रमण कर सकता है, वहीं धारचुला का विधायक जिसका क्षेत्र जौलजीबी से शुरू होकर चीन बार्डर तक है, उसे 135 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। जिसमें 40 किलोमीटर ही सड़क मार्ग है, शेष 95 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। 10 हजार फीट की ऊंचाई पर चीन सीमा से लगी जोहार, व्यांस और दारमा वैली की 400 किलोमीटर की दूरी तय कर पाना क्या किसी चुनौती से कम है, आज फिर से परिसीमन करके उस क्षेत्र को और बढ़ा दिया जा रहा है।
मैदानी जिले में 261 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर एक विधायक है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में इससे 10 गुना करीब 2648 वर्ग किलोमीटर पर एक विधायक है। साफ है कि पहाड़ों की विषम भौगोलिक स्थिति और वहां पर संचार, सड़क और अन्य बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, उसके आधार पर यह परिसीमन कैसे मान्य हो सकता है। विधायक निधि को ही देखा जाय तो वर्तमान में जो परिसीमन लागू किया जा रहा है, उससे ही पर्वतीय क्षेत्रों का प्रतिवर्ष नौ करोड़ रूपया विधायक निधि का ही कम हो गया है। आंकड़ों को देखा जाय तो मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या के प्रतिशत में लगातार वृद्दि हुई और पर्वतीय क्षेत्रों में यह आंकड़ा लगातार घट रहा है, रोजगार के लिये पलायन करना यहां के लोगों की मजबूरी है।
अनेक लोगों का मानना है कि उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि पूरे हिमालयी राज्यों में परिसीमन क्षेत्रफल के आधार पर ही होना चाहिये, क्योंकि वहां की भौगोलिक स्थितियां ऐसी हैं कि 2 गांवों का फासला तकरीबन 3 कि.मी. होता है और आवागमन के साधनों के अभाव में यह फासला भी पैदल ही तय करना पड़ता है। यदि ऐसी जगहों पर यह फैसला हो कि परिसीमन जनसंख्या के आधार पर होगा तो इन सुदूर इलाकों में विकास का पहुंचना लगभग असंभव हो जायेगा। वास्तविक उत्तराखण्ड तो गांव में निवास करता हैं, उत्तराखंड की संस्कृति गांव में ही है, यदि उसका संरक्षण करना है तो गांवों को विकसित करना जरूरी है।
यदि यह परिसीमन व्यवस्था लागू होती है और संविधान में संशोधन समय रहते नहीं हुआ तो स्थिति और भी भयावह हो सकती है। यही हाल रहा तो आज से 50 सालों के बाद पर्वतीय जिलों से शायद 1 या 2 ही विधायक विधान सभा में आ पायेंगे , तब उत्तराखंड के समग्र विकास की कल्पना करना मुश्किल है, क्योंकि जनसंख्या तो मैदानी इलाकों में ही बढ़ेगी और पर्वतीय इलाकों में कम ही होगी, संसाधनों के अभाव और रोजी-रोटी की तलाश में पर्वतीय क्षेत्रों के लोग मैदानी हिस्सों में पलायन करते रहे हैं और एक बार मैदानी हिस्सों में आने के बाद वहीं बसने का प्रयास करते हैं। पहाडों में स्थितियां अभी भी अनुकूल नहीं हैं। पानी लाने चार मील भी जाना पड़ता था, फसल बोने से काट्ने, सुखाने तक हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी राशन की दुकान में लाइन लगाने के लिये 6 कि.मी. जाना पड़ता है , स्कूल पढ़ने के लिये 5 कि.मी. पैदल और वहां भी अध्यापकों का अभाव…..! इन्ही सब परिस्थितियों से बचने और मूलभूत सुविधाओं के अभाव से भावी पीढ़ी को बचाने के लिये लोग मैदान में बसना पसंद करते हैं
ऐसी स्थितियों में गांव तक सुविधा कैसे पहुंचेगी, जो थोड़ी बहुत सुविधा गांव में विधायक के माध्यम से मिल भी रहीं हैं, उनको भी हम छीन लें, तो क्या वहां के लोगों के प्रति यह अन्याय नहीं होगा?
kya is paristhiti ko parisiman aayog ya bharat sarkar samajhegi? mushkil lagta hai.
in remote hills the density of population is very low and problems are a lot.if there will be Parisiman than who will care for thease remote village.everybody will look n care for the majorty.if govt dont wants migration the remote areas should be given more representation
sir
i have some songs for uttrakhand……………….i hope if you give me a chance by any uttrakhand music company……….the song will rock
rgds
hemant joshi